Aacharya Hajari Prasad Dwivedi: Vyaktitwa Ewam Sahitya
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हिन्दी साहित्य के विकास में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का महघ्घ्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने हिन्दी गद्य की विभिन्न विद्याओंघ्घ्समीक्षा, साहित्येतिहास, निबन्घ्घ, उपन्यास आदि के क्षेत्रा में अपनी घ्घ्तियों द्वारा नये आयाम स्थापित किए हैं। प्रस्तुत घ्घ्ति में आचार्य द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं साहित्य के प्रमुख पक्षों का विवेचन-विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है। यहाघ्घ् यह उल्लेखनीय है कि यह सबसे पहली घ्घ्ति है जिसमें आचार्य द्विवेदी के साहित्य का मूल्यांकन प्रस्तुत करने की सर्वप्रथम चेष्टा की गयी थी, इस दृष्टि से इसका ऐतिहासिक महघ्घ्व भी है। प्रांरभिक लेख में जहाघ्घ् आचार्य द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं जीवन-दर्शन का विवेचन अत्यन्त संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है वहाघ्घ् अन्य लेखों में घ्घ्मशः उनके आलोचक, इतिहासकार, निबन्घ्घकार एवं उपन्यासकार को लिया गया है। आलोचक रूप से अन्तर्गत घ्घ्मशः आचार्य द्विवेदी की साहित्यिक मान्यताओं, उनकी समीक्षा की मानवतावादी भूमि, प्रगतिशीलता, आघ्घारभूत सिघ्घन्त, समीक्षा-शैली आदि का विवेचन अनेक अघ्घिकारी विद्वानों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। निबन्घ्घकार के अन्तर्गत उनके निबन्ध् साहित्य के विभिन्न पक्षोंघ्घ्साहित्यिक, सांस्घ्घ्तिक, मानवतावादी दृष्टि, शिल्प, शैली आदिघ्घ्का विश्लेषण सम्यक् रूप में हुआ है। उपन्यासकार के अन्तर्गत मुख्यतः घ्घ्बाणभट्ट की आत्मा कथाघ्घ् के आघ्घार पर उसके विभिन्न अंगों एवं तघ्घ्वों का विवेचन हुआ है। इनके अतिरिक्त इतिहासकार, भक्ति साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान, भारतीय संस्घ्घ्ति के व्याख्याता आदि रूपों में भी आचार्य द्विवेदी का मूल्यांकन इसमें प्रस्तुत है। पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है लगभग तीस विद्वानों द्वारा द्विवेदी-साहित्य के विभिन्न रूपों एवं पक्षों का सर्वथा स्वतंत्रा एवं निजी दृष्टि से मूल्यांकन, जिसके पफलस्वरूप विभिन्न दृष्टिकोणों, मतों एवं निष्कषोघ्घ् का समूच्चय इसमें उपलब्घ्घ है।
डॉ॰ गणपतिचन्द्र गुप्त (1928 ई॰) हिन्दी के यशस्वी साहित्यकार एवं समालोचक हैं। आपने क्रमशः पंजाब विश्वविद्यालय में प्रथम श्रेणी में एम॰ए॰ (हिन्दी), पी-एच॰डी॰ एवं डी॰ लिट्॰ की उपाधियाँ प्राप्त कीं। उन्होंने 1964 से 1978 ई॰ तक विभिन्न विश्वविद्यालयों में हिन्दी साहित्य का प्राध्यापन कार्य किया। 1974 ई॰ में पंजाब विश्वविद्यालय-स्नातकोत्तर अध्ययन केन्द्र, रोहतक के निदेशक पद पर प्रतिष्ठित हुए। तदनन्तर 1976 से 1978 ई॰ तक महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक में कुलानुशासक, अधिष्ठाता, भाषा-संकाय आदि पदों पर कार्य किया। 1978 ई॰ से 1984 तक हिमालय प्रदेश-विश्वविद्यालय, शिमला एवं कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र में क्रमशः कुलपति के रूप में कार्य किया।