Gali Aage Murti Hai
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‘गली आगे मुड़ती है’ उपन्यास ‘अलग-अलग वैतरणी’ के लेखक के निजी जीवन का मोड़ था। शिवप्रसाद सिंह 1974 तक ‘ग्राम कथा’ और ‘वैतरणी’ जैसे विख्यात उपन्यासों के लेखक के रूप में अपना एक अलग स्थान बना चुके थे। वे पुराने लोकेशन (परिवेश) को कभी दुहराते नहीं। इसलिए ‘गली’ में वे काशी जैसे विरले नगर की अनेकानेक छवियों को जो काली हैं, धूसरित हैं, पंकिल हैं, उकेरना चाहते थे; पर इसी के बीच एक ऐसी भी काशी है, जिसे ग़ालिब ने कभी ‘अध्यात्म का चिराग’ कहा था, जो इस डबरे-भर परिवेश में निरन्तर प्रतिच्छायित होता रहता है। यही वह मोड़ था, जिसने लेखक को लॉरेंस ड्यूरल के ‘ऑलक्जांद्रिया क्वार्टरेट’ की तरह ‘काशी त्रयी’ लिखने की चुनौती दी। लॉरेंस तो इतिहास के दस्तावेज़ों और खँडहरों में भटककर विस्मृत हो गया, किन्तु काशी का मध्यकालीन इतिहास ‘नीला चाँद’ (काशी-2) में ऐसा निखरा कि इसे विद्वानों ने एक स्वर में अभूतपूर्व, नितान्त अनछुए विषयों से अनुप्राणित बताकर भूरि-भूरि प्रशंसा की।
शिवप्रसाद सिंह का कहना है कि ‘वैतरणी’ में सम्बोध्य राष्ट्र कृषक और कृषक पुत्र थे। ‘गली’ में सम्बोध्य सम्पूर्ण राष्ट्र का युवा वर्ग है। युवा वर्ग के क्रोध और क्षोभ का विस्फोट ‘गली’ में निरन्तर गूँजता रहता है।